When it rains.

When it rains.
Photo by Matteo Catanese / Unsplash

Whenever it rains, smoke rises somewhere else and this rain calms this smoke. People worship this rain, sometimes for thirst and sometimes for food grains. This is an amazing rain, where at some point of time, first a boiling ball of fire steals water from the earth and this water turns into smoke and disappears into the sky and then comes the rain. What should we call this smoke?

The flying bird, getting drenched in this rain, waving, dancing, going on its journey without any hassle, without an umbrella, folding its wings, becoming like a shadow, kissing these black clouds in the sky, look, it is flying.
When it rains, it becomes dark. It seems that everything will get wet. A melting heart and a heavy body that is afraid of the falling drops that it might get wet. This foolish person wants so much comfort in everything. He wants everything to happen according to his wish, his logic, his religion. And now he demands that the weather should also change according to his ways. If he has never known himself, how will he know the rain? Rain is not for understanding, for measuring, for weighing. Rain is only for pouring down to quench the thirst of this earth.

I had thought once that I will also get drenched in some rain. Maybe the rain itself got angry with me and the rain said to me that I should wet those who have no one. You have everyone. Rain is very naughty. It has played the game of hide and seek and in its mind, it has understood the rain that sometimes here, sometimes there, sometimes it should wet someone, sometimes it should tease someone. I remember it was like a light cloud, on hearing it I stand up and run after it; my childhood has passed in the hope that it will come to me someday. Those faces, those lanes, those paths, in which I ran after such a cloud. While going behind these clouds, I lost myself and unknowingly thought that I should control the rain, I should bring it under my control, this rain should be mine.


जब बारिश होती है तब तब एक कहीं किसी औऱ धुआँ उठता हैं और इस धुएँ को शांत करती हे यह बर्शा । इस बर्शा की लोग पूजते हैं तोह कभी प्यास के लिए तो कभी अनाज के लिए। यह कमाल की बर्शा हैं जहां पर कभी किसी समय में पहले उबलता हुआ आग का गोला धरती से चुराता हैं पानी को और यह पानी धुआँ बनकर आसमान में छू मंतर हो जाता हैं और फिर आती हैं बारिश । इस धुएँ को क्या नाम दें?

उड़ता हुआ पंछी इस बारिश में भीगता हुआ लहराता हुआ झूमता हुआ अपने सफ़र में बिना किसी परेशानी किसी छाते के निकलता अपने पंखों तो मोड़ता हुआ एक छाया सी बनकर आसमान में इन काले बादलों को चूमता हुआ देखो वह उड़ता हुआ जा रहा हैं।

जब बारिश होती हैं तब अंधेरा से हो जाता हैं ऐसा प्रतीत होता हैं सब कुछ गीला हो जाएगा पिघलता हुआ मन और भारी से तन जो टपकती हुईं बूँदे से डरता की कहीं भीग ना जाये नासमझ यह इतना हर बात में चाइए आराम इसको अपनी मर्ज़ी अपना तर्क अपना धर्म सब अपने हिसाब से होता हुआ चाहिए और अब माँगे की मौसम भी बदले इसकी चाल पर । कभी नहीं जाना अपने आप को तो कैसे जानेगा बारिश। बारिश नहीं हैं समझने के लिए नापने के लिये तोलने के लिए। बारिश तो हैं सिर्फ़ बरसने के लिए इस धरती की प्यास भुझाने के लिये।

मैंने सोचा था कभी कि किसी बारिश में में भी भीघूँगा , शायद बारिश ही नाराज़ हो गई मुझसे और बारिश ने कहा मुझसे में भिगायूँ उनको जिनका कोई नहीं हैं । सब तो हैं तेरे पास । बारिश बड़ी नटखट हैं लुका छुपी का खेल खेले हैं और अपने मन से बारिश समझे हैं की कभी यहाँ तो कभी वहाँ कभी किसी को भिगायूँ तो कभी किसी तो साताऊँ। मुझे याद हैं वह असमान हल्का कला सा था वह उसे सुन में खड़ा हो जाता हूँ भागता हूँ उसके पीछे बचपना बीत गया हैं उसकी आस में कभी तो आए मेरे पास। बह चहरे बह गलियाँ बह रास्ते जिनमे में घुमा दोड़ा एस केल बादल के पीछे। इन बादलों के पीछे जाते जाते में खोया अपने आप को अनजाने में सोचा की में करूँ बारिश को क़ाबू, करूँ इसे अपने वश में यह बारिश हो मेरी।